परिवेश और प्रवृत्तियाँ

समकालीन कविता की विशेषता- प्रो रणजीत कुमार सिन्हा
‘समकालीन कविता’ अपने परिवेश के प्रति ,अपने समय की चिन्ता के प्रति विशेष सम्बंध होने के कारण उसे समकालीन कविता कहा जाता है।वैसे हिंदी साहित्य में आठवे दशक की कविता को समकालीन कविता कहा गया है।मगर साहित्य को पंचवर्षीय घेरो में नहीं बांधा जा सकता |
समकालीन कविता का अर्थ ‘समसामयिकता’ नहीं होता।‘समकालीनता’ एक व्यापक और बहुआयामी शब्द है और आधुनिकता का आधार तत्व है।जो समकालीन है वह आधुनिक भी हो यह आवश्यक नहीं, किन्तु आधुनिक चेतना से मिश्रित दृष्टि है ,वह निश्चित रूप से समकालीन भी हो सकती है।कहने का तात्पर्य यह है कि समकालीन कविता ने बदलते हुए जीवनमूल्यों को मानवीय स्तरों पर ही प्रतिष्ठित किया है।अथार्त समकालीन कविता का सामाजिक बोध अपने समय की माँगो के अनुरूप उभरा है और उसने समय को अपने दायित्यों के प्रति जागरूक बनाया है।समकालीन कविता युगीन यथार्थ वास्तविकता को अभिव्यक्त प्रदान करती है |
नयी कविता ,अकविता आदि से भिन्न समकालीन कविता अपने समय का सीधा साक्षात्कार कराती है ,समकालीन कविता सामाजिक चेतना के साथ-साथ शोषण ,गरीबी तथा सामाजिक ,आर्थिक असंतुलन पर प्रहार की कविता है।समकालीन कविता के अनुभति और अभिव्यक्ति दोनों पक्षों में एक व्यापक परिवर्तन आया है।इस काल के कवियों ने व्यक्तिक और सामाजिक स्वतंत्रता पर लगाये गये अंकुश के कारण सत्ता और व्यवस्था पर खुलकर प्रहार किया है , इतना ही नहीं उनका सत्ता परिवर्तन का स्वर भी मुखर हुआ है।
यदि प्रवृतियों के आधार पर समकालीन कविता की परिभाषा देने का प्रयत्न करे तो इसकी काल के अनुसार पहचान नहीं बनती , इसलिए समय एवं प्रवृतियाँ दोनों को साथ रखकर इसकी पहचान निर्धारित की जा सकती है।इस दशक की कविताओं में विचारों की प्रधानता होने के कारण कई लोग इसे ‘विचार कविता’ भी कहते हैं।अर्थात् ‘विचार कविता’ के साथ ‘आंतरिक सत्य और सामाजिक यथार्थ का मिलन बिंदु है ,जिसमे न तो कल्पना का अतिरेक है और न ही वस्तुस्थिति का प्रचार है।अत: ‘विचार’ समकालीन कविता का विधायक तत्व है।कवि सामाजिक और साहित्यिक रुढियों का अस्वीकार करके नये विचारों से जुड़ता है।परिणाम स्वरुप भाषा ,बिम्ब,एवं प्रतीकों की नवीनता भी देखने को मिलती है।अत: हम कह सकते है कि समकालीन कविता यदि एक ओर कवि के आंतरिक सत्य तथा सामाजिक यथार्थ की टकराहट से उत्पन्न ‘विचार’ को महत्व देती है तो दूसरी ओर किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध ‘विचार’ का विरोध नहीं करती।अथार्त् समकालीन कविता में ‘विचारो का संतुलन’ रखा गया है।इसमें न तो व्यक्तिवाद की प्रधानता है, और न ही समूहवाद की।इस दौर की कविता में बौद्धिकता एवं भावुकता का सामजस्य देखनेव को मिलता है ,क्योंकि भारतीय मानसिकता व्यक्ति में समूहत्व ओ समूह में व्यक्ति की विशिष्टता को स्वीकारती है।इस दशक की कविता ने भी इसी मानसिकता से अपना नाता जोड़ा है।अथार्त् समकालीन कविता में विचार और संवेदन दोनों का महत्व स्वीकार गया है।समकालीन कविता आम आदमी के जीवन के संघर्षो, विसंगतियों ,विषमताओं एवं विद्रूपता की खुली पहचान है |
‘इक्कीसवी सदी भारत का होगा’ यह दिव्या स्वप्न देखने वालों को देश के उस अधनंगे भूखे लोगों की ओर ताकने का अवसर ही नहीं मिल पाता जो दो जून के रोटी के लिये मारे-मारे फिर रहें है।भारत के समग्र विकास के लिये आवश्यक है कि इस तबके को झाँका जाये।समकालीन कविता मानवतावादी है, पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है।उसकी यथार्थ दृष्टी मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने का बौद्धिक प्रयास करती है।समकालीन कविता मनुष्य को किसी कल्पित सुन्दरता और मूल्यों के आधार पर नहीं ,बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती है ,यही उसकी लोक थाती है।केदारनाथ सिंहजी अपनी प्रसिद्द कविता ‘रोटी’ में इसकी महत्ता प्रतिपादित करते हुये कहते हैं-
Proyag vad । Nai kavitha । प्रयोगवाद और नई कविता । हिंदी साहित्य
प्रयोगवाद और नई कविता (proyag vad - nai परिवेश और प्रवृत्तियाँ kavitha)
हिन्दी काव्य में प्रयोगवाद का प्रारम्भ सन् 1943 ई. में अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार-सप्तक के प्रकाशन से माना जाता है । प्रयोगवाद का विकास ही कालन्तर में नई कविता के परिवेश और प्रवृत्तियाँ रुप में हुआ ।
डॉ. शिवकुमार के अनुसार ये दोनों एक ही धारा के विकास की दो अवस्थाएं हैं । सन् 1943 से 1953 ई. तक कविता में जो नवीन प्रयोग हुए , नई कविता उन्हीं का परिणाम है ।
बहुत से कवि जो पहले प्रयोगवादी रहे , बाद में नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर बन गए । निष्कर्ष रूप में 1943 से 1953 तक की कविता को प्रयोगवाद एवं 1953 के बाद की कविता को नई कविता की संज्ञा दी जा सकती है ।
प्रयोगवाद शब्द को अनुपयुक्त मानते हुए दूसरा सप्तक की भूमिका में सष्ट किया कि प्रयोग का कोई वाद नहीं है।
प्रयोगवाद सर्वाधिक अस्तित्वाद से प्रभावित है , अस्तित्वाद के प्रवर्तक सारेन कीर्कगार्द थे । समकालीन समीक्षा में अज्ञेय को अस्तित्वादी घोषित किया गए।
प्रयोगवाद और नई कविता की प्रवृत्तियाँ
इनका जन्म उत्तरप्रदेश के जिला देवरिया के कुशीनगर में हुआ था ।इन्होंने 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में नौकरी की । इन्होंने अज्ञेय के रुप में काव्य रचना की ।
इन्हें कवि , कथाकार , निबन्धकार , सम्पादक और अध्यापक के रुप में जाना जाता है । पत्रकारिता के क्षेत्र में दिनमान और प्रतीक के संपादकरुप में ख्याति प्राप्त हुई है । तार सप्तक , दूसरा सप्तक , तीसरा सप्तक , चैथा सप्तक और रूपांबरा इनके द्वारा संपादित काव्य संकलन हैं ।
आंगन के पार द्वार काव्य संग्रह तीन खंडो मे विभक्त है - प्रथम अंतः सलिला , द्वतीय चन्द्रकांतशिला परिवेश और प्रवृत्तियाँ और तृतीय असाध्य वीणा ।
एक चीड़ का खाका में अज्ञेय ने जापनी काव्य का नमूना प्रस्तुत किया है , जापनी भाषा में ऐसे मुक्तकों को हाइकू कहते हैं ।
मुक्तिबोध का जन्म परिवेश और प्रवृत्तियाँ ग्वालियर के एक कस्बे में हुआ था । आलोचकों ने गजनन माधव मुक्तिबोध की समानता कबीर से की है । उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के रुप ऊभर कर सामने आया , दूसरी ओर नई कविता की प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया ।
1. चाँद का मुँह टेढा है 2. भूरी-भूरी खाक धूल 3. अँधेरे में 4. ब्रह्मराक्षस 5. भूल-गलती 6. चकमक की चिंगारियाँ
अंधेरे में मुक्तिबोध की सबसे लम्बी तथा सर्वाधिक चर्चित कविता है , यह एक सप्व कथा है , एक फैंटसी है ।
ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध की प्रसिध्द लम्बी कविता है । इसमें ऐसे ब्रह्मण को प्रस्तुत किया गया है जो अतृप्त आकांक्षाओं के साथ मर गया है और ब्रह्मराक्षस बन गया है ।
गिरिजाकुमार माथुर का जन्म सन् 1919 में ग्वालियर जिले के अशोक नगर कस्बे में हुआ था । वे कवि , नाटककार और समालोचक के रूप में जाने जाते है ।
1. मंजीर 2. नाश और निर्माण 3. छाया मत छूना मन 4. भीतरी नदी की यात्रा 5. कल्पांतर 6. मैं वक्त के हूँ सामने 7. साक्षी रहे वर्तमान
1. छवि के बंधन (पहला कव्य संग्रह) 2. जागते रहो 3. अनुपस्थित लोग 4. मुक्तिमार्ग 5.एक उठा हुआ हाथ 6. उतना वह सूरज है (साहित्य अकादमी)
इसी नाम को लेकर सन् 1953 में नए पत्ते नाम से और सन् 1954 में नई कविता नाम से पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ । नए पत्ते का संपादन डॉ.रामस्वरुप चतुर्वेदी और लक्ष्मीकांत वर्मा ने संपादित किया । नई कविता का संपादन दायित्व डॉ. रामस्वरुप चतुर्वेदी और डॉ. जगदीश गुप्त ने उठाया । यहीं से प्रयोगवादी कही जाने वाली कविता को एक नया नाम नई कविता के नाम से चला ।
नई कविता काव्य प्रवृत्ति के प्रचार-प्रसार में प्रतीक , दृष्टिकोण , कल्पना , धर्मयुग पत्रिकाओं का योगदान रहा हैं ।
धर्मवीर भारती का जन्म सन् 1926 को परिवेश और प्रवृत्तियाँ अतारसुइया , इलाहबाद मे हुआ था । आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक , कवि , नाटककार और सामाजिक विचारक थे । आप हिन्दी की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक थे । सन् परिवेश और प्रवृत्तियाँ 1972 में हिन्दी साहित्य में योगदान के लिए पद्मश्री और सन् 1988 में हिन्दी नाट्य लेखन के लिए संगीत नाटक अकादमी पुसस्कार मिला ।
(1955 , प्रतीकवादी पद्य नाटक है , जिसमें महाभारत के अंतिम दिन के युध्द से लेकर कृष्ण के गोलोकवास तक की घटनाओं को समेटा गया है ।
नरेश महेता का जन्म सन् 1922 में मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के शाजापुर कस्बे मे हुआ । आपने आल इणिडिया रेडियो इलाहाबाद में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में कार्य किया । इन्हें उनकी साहित्यक सेवाओं के लिए 1992 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
1.बनपाखी सुनो , 2. बोलने दो चीड़ को 3. संशय की एक रात ( एक पौराणिक काव्य-रुपक है , जिसमें राम रावण युध्द के पूर्व राम के मन का संशय) 4. उत्सव 5. मेरा समर्पित एकांत , 6. महाप्रस्थान ( पांडवों के हिमालय में गलने की प्रसिध्द कथा) 7. शबरी ( रामकथा पर सम्बध्द प्रबंध काव्य) 8. प्रवाद – पर्व (सीता-बनवास के करुण प्रसंग पर आधारित खण्डकाव्य है ) 9. समय देवता ( इनकी एक प्रसिध्द लंबी कविता है जो मेरा समर्पित एकांत मे संकलित है )
शमशेर बहादुर सिंह का जन्म देहरादून में 1911 में हुआ था । ये हिन्दी और उर्दू के विद्वान थे । युवाकाल में शमशेर वामपंथी विचारधारा और प्रगतिशील साहित्य से प्रभावित हुए । वे आधुनिक हिन्दी कविता की प्रगतिशील त्रयी के एक संभ है । इनकी शैली अंग्रेजी कवि एजरा पाउण्ड से प्रभावित है । शमसेर ने कविताओं के समान ही चित्रों में भी प्रयोग किये हैं । इन्होंने फ्रांससी प्रतीकवादी कवियों के प्रभाव में पर्याप्त प्रयोग किये अतः इन्हें कवियों का कवि कहा जाता है ।
पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय अपनी इस कृति में पत्रकारिता की परिवेश-प्रवृत्तियों पर सांगोपांग और समीचीन प्रकाश डालते हुए अपनी वस्तुपरक दृष्टि का सम्यक् परिचय दिया है
आज के समाचारपत्र साध्य और साधन दोनों हैं। वे करुणा भी हैं और चेतना भी; दृष्टि भी हैं और ज्ञान भी; बोध भी हैं और व्याप्ति भी; इतिहास की तिथि भी हैं और भूगोल की परिधि भी; सन्तुलन भी हैं और मर्यादा भी। इसीलिए जनतन्त्र की जितनी बड़ी जवाब देही पत्रों और पत्रकारों का है, कदाचित् किसी और की नहीं। हर किसी को आज भारतीय पत्रकारिता से बहुत बड़ी आशा है और अपेक्षा भी। संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘पेण्टागन-पत्रों का प्रकाशन’ और ‘वाटरगेट काण्ड’ का रहस्योद्घाटन भारतीय पत्रकारिता के लिए भी चुनौती है। हमारे यहाँ भी कई रहस्य ज्यों के त्यों पड़े हैं और उन पर समय का मलबा पड़ता जा रहा है, जिसका कोई वस्तुत: निर्भीक पत्रकार ही रहस्योद्घाटन कर सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जब भारतीय पत्रकारों ने मामले उठाये हैं। आज भी हवा के बवण्डर के समान कई प्रश्न आन्दोलित हो रहे हैं। उनके उत्तर प्रतीक्षा में है कि ‘कार्लबर्न स्टोन’ और ‘बुडवर्ड’ के समान कोई पत्रकार आगे बढ़कर रहस्यों का उद्घाटन कर दे।
आज आर्थिक और राजनीतिक समस्याएँ, फिर भले ही वे राष्ट्रीय हो अथवा अन्तरर्राष्ट्रीय हों, इतनी क्लिष्ट और संश्लिष्ट और हो गयी हैं कि उनकी पृष्ठभूमि और पेचीदगियों को सही-सही जानना-समझना अतीव आवश्यक हो गया है। इन्हें विशेषज्ञ ही समझा सकते हैं और वे विशेषज्ञ हैं, सुलझे हुए और अनुभवी पत्रकार। पत्रकार को आज विषम स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में यदि उसका ध्यान दायित्व की अपेक्षा अपने ‘बचाव’ पर अधिक रहता है तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है; फिर दायित्व की मर्यादा को आज की राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था जीवित रहने की इजा़जत कहाँ देती है? राजनीति को पेशा बनानेवालों ने ही क्या पत्रकारों को भी प्रथमत: पेशा मानने के लिए बाध्य नहीं किया है। समाचारपत्र-जगत् पर छाये व्यवसायीकरण के लिए कौन ़िजम्मेदार है? सुविधाएँ देने का प्रलोभन देकर पत्रकारों को अपने पक्ष में बनाये रखने का दुराचार कौन करता है? कौन यह नहीं समझने का भूल दोहराता रहता है कि पत्रकार भी मानव-समाज का एक अंग है और वह भी मानवीय दुर्बलताओं से परे नहीं है। कौन इस सत्य को स्वीकार करने से कतराता है—व्यक्ति-विशेष ही तपस्वी हो सकता है, पूरा समुदाय नहीं?
पत्रकारिता-जगत् के लब्ध-प्रतिष्ठ पत्रकार डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय अपनी इस कृति में पत्रकारिता की परिवेश-प्रवृत्तियों पर सांगोपांग और समीचीन प्रकाश डालते हुए अपनी वस्तुपरक दृष्टि का सम्यक् परिचय दिया है।
पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय अपनी इस कृति में पत्रकारिता की परिवेश-प्रवृत्तियों पर सांगोपांग और समीचीन प्रकाश डालते हुए अपनी वस्तुपरक दृष्टि का सम्यक् परिचय दिया है
आज के समाचारपत्र साध्य और साधन दोनों हैं। वे करुणा भी हैं और चेतना भी; दृष्टि भी हैं और ज्ञान भी; बोध भी हैं और व्याप्ति भी; इतिहास परिवेश और प्रवृत्तियाँ की तिथि भी हैं और भूगोल की परिधि भी; सन्तुलन भी हैं और मर्यादा भी। इसीलिए जनतन्त्र की जितनी बड़ी जवाब देही पत्रों और पत्रकारों का है, कदाचित् किसी और की नहीं। हर किसी को आज भारतीय पत्रकारिता से बहुत बड़ी आशा है और अपेक्षा भी। संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘पेण्टागन-पत्रों का प्रकाशन’ और ‘वाटरगेट काण्ड’ का रहस्योद्घाटन भारतीय पत्रकारिता के लिए भी चुनौती है। हमारे यहाँ भी कई रहस्य ज्यों के त्यों पड़े हैं और उन पर समय का मलबा पड़ता जा रहा है, जिसका कोई वस्तुत: निर्भीक पत्रकार ही रहस्योद्घाटन कर सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जब भारतीय पत्रकारों ने मामले उठाये हैं। आज भी हवा के बवण्डर के समान कई प्रश्न आन्दोलित हो रहे हैं। उनके उत्तर प्रतीक्षा में है कि ‘कार्लबर्न स्टोन’ और ‘बुडवर्ड’ के समान कोई पत्रकार आगे बढ़कर रहस्यों का उद्घाटन कर दे।
आज आर्थिक और राजनीतिक समस्याएँ, फिर भले ही वे राष्ट्रीय हो अथवा अन्तरर्राष्ट्रीय हों, इतनी क्लिष्ट और संश्लिष्ट और हो गयी हैं कि उनकी पृष्ठभूमि और पेचीदगियों को सही-सही जानना-समझना अतीव आवश्यक हो गया है। इन्हें विशेषज्ञ ही समझा सकते हैं और वे विशेषज्ञ हैं, सुलझे हुए और अनुभवी पत्रकार। पत्रकार को आज विषम स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में यदि उसका ध्यान दायित्व की अपेक्षा अपने ‘बचाव’ पर अधिक रहता है तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है; फिर दायित्व की मर्यादा को आज की राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था जीवित रहने की इजा़जत कहाँ देती है? राजनीति को पेशा बनानेवालों ने ही क्या पत्रकारों को भी प्रथमत: पेशा मानने के लिए बाध्य नहीं किया है। समाचारपत्र-जगत् पर छाये व्यवसायीकरण के लिए कौन ़िजम्मेदार है? सुविधाएँ देने का प्रलोभन देकर पत्रकारों को अपने पक्ष में बनाये रखने का दुराचार कौन करता है? कौन यह नहीं समझने का भूल दोहराता रहता है कि पत्रकार भी मानव-समाज का एक अंग है और वह भी मानवीय दुर्बलताओं से परे नहीं है। कौन इस सत्य को स्वीकार करने से कतराता है—व्यक्ति-विशेष ही तपस्वी हो सकता है, पूरा समुदाय नहीं?
पत्रकारिता-जगत् के लब्ध-प्रतिष्ठ पत्रकार डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय अपनी इस कृति में पत्रकारिता की परिवेश-प्रवृत्तियों पर सांगोपांग और समीचीन प्रकाश डालते हुए अपनी वस्तुपरक दृष्टि का सम्यक् परिचय दिया है।
Proyag vad । Nai kavitha । प्रयोगवाद और नई कविता । हिंदी साहित्य
प्रयोगवाद और नई कविता (proyag vad - nai kavitha)
हिन्दी काव्य में प्रयोगवाद का प्रारम्भ सन् 1943 ई. में अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार-सप्तक के प्रकाशन से माना जाता है । प्रयोगवाद का विकास ही कालन्तर में नई कविता के रुप में हुआ ।
डॉ. शिवकुमार के अनुसार ये दोनों एक ही धारा के विकास की दो अवस्थाएं हैं । सन् 1943 से 1953 ई. तक कविता में जो नवीन प्रयोग हुए , नई कविता उन्हीं का परिणाम है ।
बहुत से कवि जो पहले प्रयोगवादी रहे , बाद में नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर बन गए । निष्कर्ष रूप में 1943 से 1953 तक की कविता को प्रयोगवाद एवं 1953 के बाद की कविता को नई कविता की संज्ञा दी जा सकती है ।
प्रयोगवाद शब्द को अनुपयुक्त मानते हुए दूसरा सप्तक की भूमिका में सष्ट किया कि प्रयोग का कोई वाद नहीं है।
प्रयोगवाद सर्वाधिक अस्तित्वाद से प्रभावित है , अस्तित्वाद के प्रवर्तक सारेन कीर्कगार्द थे । समकालीन समीक्षा में अज्ञेय को अस्तित्वादी घोषित किया गए।
प्रयोगवाद और नई कविता की प्रवृत्तियाँ
इनका जन्म उत्तरप्रदेश के जिला देवरिया के कुशीनगर में हुआ था ।इन्होंने 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में नौकरी की । इन्होंने अज्ञेय के रुप में काव्य रचना की ।
इन्हें कवि , कथाकार , निबन्धकार , सम्पादक और अध्यापक के रुप में जाना जाता है । पत्रकारिता के क्षेत्र में दिनमान और प्रतीक के संपादकरुप में ख्याति प्राप्त हुई है । तार सप्तक , दूसरा सप्तक , तीसरा सप्तक , चैथा सप्तक और रूपांबरा इनके द्वारा संपादित काव्य संकलन हैं ।
आंगन के पार द्वार काव्य संग्रह तीन खंडो मे विभक्त है - प्रथम अंतः सलिला , द्वतीय चन्द्रकांतशिला और तृतीय असाध्य वीणा ।
एक चीड़ का खाका में अज्ञेय ने जापनी काव्य का नमूना प्रस्तुत किया है , जापनी भाषा में ऐसे मुक्तकों को हाइकू कहते हैं ।
मुक्तिबोध का जन्म ग्वालियर के एक कस्बे में हुआ था । आलोचकों ने गजनन माधव मुक्तिबोध की समानता कबीर से की है । उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के रुप ऊभर कर सामने आया , दूसरी ओर नई कविता की प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया ।
1. चाँद का मुँह टेढा है 2. भूरी-भूरी खाक धूल 3. अँधेरे में 4. ब्रह्मराक्षस 5. भूल-गलती 6. चकमक की चिंगारियाँ
अंधेरे में मुक्तिबोध की सबसे लम्बी तथा सर्वाधिक चर्चित कविता है , यह एक सप्व कथा है , एक फैंटसी है ।
ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध की प्रसिध्द लम्बी कविता है । इसमें ऐसे ब्रह्मण को प्रस्तुत किया गया है जो अतृप्त आकांक्षाओं के साथ मर गया है और ब्रह्मराक्षस बन गया है ।
गिरिजाकुमार माथुर का जन्म सन् 1919 में ग्वालियर जिले के अशोक नगर कस्बे में हुआ था । वे कवि , नाटककार और समालोचक के रूप में जाने जाते है ।
1. मंजीर 2. नाश और निर्माण 3. छाया मत छूना मन 4. भीतरी नदी की यात्रा 5. कल्पांतर 6. मैं वक्त के हूँ सामने 7. साक्षी रहे वर्तमान
1. छवि के बंधन (पहला कव्य संग्रह) 2. जागते रहो 3. अनुपस्थित लोग 4. मुक्तिमार्ग 5.एक उठा हुआ हाथ 6. उतना वह सूरज है (साहित्य अकादमी)
इसी नाम को लेकर सन् 1953 में नए पत्ते नाम से और सन् 1954 में नई कविता नाम से पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ । नए पत्ते का संपादन डॉ.रामस्वरुप चतुर्वेदी और परिवेश और प्रवृत्तियाँ लक्ष्मीकांत वर्मा ने संपादित किया । नई कविता का संपादन दायित्व डॉ. रामस्वरुप चतुर्वेदी और डॉ. जगदीश गुप्त ने उठाया । यहीं से प्रयोगवादी कही जाने वाली कविता को एक नया नाम नई कविता के नाम से चला ।
नई कविता काव्य प्रवृत्ति के प्रचार-प्रसार में प्रतीक , दृष्टिकोण , कल्पना , धर्मयुग पत्रिकाओं का योगदान रहा हैं ।
धर्मवीर भारती का जन्म सन् 1926 को अतारसुइया , इलाहबाद मे हुआ था । आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक , कवि , नाटककार और सामाजिक विचारक थे । आप हिन्दी की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक थे । सन् 1972 में हिन्दी साहित्य में योगदान के लिए पद्मश्री और सन् 1988 में हिन्दी नाट्य लेखन के लिए संगीत नाटक अकादमी पुसस्कार मिला ।
(1955 , प्रतीकवादी पद्य नाटक है , जिसमें महाभारत के अंतिम दिन के युध्द से लेकर कृष्ण के गोलोकवास तक की घटनाओं को समेटा गया है ।
नरेश महेता का जन्म सन् 1922 में मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के शाजापुर कस्बे मे हुआ । आपने आल इणिडिया रेडियो इलाहाबाद में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में कार्य किया । इन्हें उनकी साहित्यक सेवाओं के लिए 1992 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
1.बनपाखी सुनो , 2. बोलने दो चीड़ को 3. संशय की एक रात ( एक पौराणिक काव्य-रुपक है , जिसमें राम रावण युध्द के पूर्व राम के मन का संशय) 4. उत्सव 5. मेरा समर्पित एकांत , 6. महाप्रस्थान ( पांडवों के हिमालय में गलने की प्रसिध्द कथा) 7. शबरी ( रामकथा पर सम्बध्द प्रबंध काव्य) 8. प्रवाद – पर्व (सीता-बनवास के करुण प्रसंग पर आधारित खण्डकाव्य है ) 9. समय देवता ( इनकी एक प्रसिध्द लंबी कविता है जो मेरा समर्पित एकांत मे संकलित है )
शमशेर बहादुर सिंह का जन्म देहरादून में 1911 में हुआ था । ये हिन्दी और उर्दू के विद्वान थे । युवाकाल में शमशेर वामपंथी विचारधारा और प्रगतिशील साहित्य से प्रभावित हुए । वे आधुनिक हिन्दी कविता की प्रगतिशील त्रयी के एक संभ है । इनकी शैली अंग्रेजी कवि एजरा पाउण्ड से प्रभावित है । शमसेर ने कविताओं के समान ही चित्रों में भी प्रयोग किये हैं । इन्होंने फ्रांससी प्रतीकवादी कवियों के प्रभाव में पर्याप्त प्रयोग किये अतः इन्हें कवियों का कवि कहा जाता है ।